जनान्दोलनों के संघर्ष के प्रतीक स्व. त्रेपन सिंह चौहान की 54वीं जयंती पर उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि।

उत्तराखंड टिहरी गढ़वाल देहरादून ब्रेकिंग न्यूज

जनान्दोलनों के संघर्ष के प्रतीक स्व. त्रेपन सिंह चौहान की 54वीं जयंती पर उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि।

टिहरी गढ़वाल/घनसाली:- उत्तराखण्ड के जनान्दोलनों व जनसरोकारों के लिए काम करने वाली धारा को विगत 13 अगस्त 2020 को तब गहरा आघात लगा जब उत्तराखण्ड में वर्तमान दौर में जनांदोलनों के प्रतीक बन चुके व चर्चित उपन्यासकार त्रेपन सिंह चौहान का लम्बी बीमारी के बाद देहरादून के सिनर्जी अस्पताल में निधन हो गया व लोगों के दिलों में सिर्फ अपनी यादें छोड़ गए।

स्व.त्रेपन सिंह चौहान का जन्म 4 अक्टूबर, 1971 को केपार्स, बासर टिहरी (गढ़वाल) में हुआ। डीएवी कालेज, देहरादून से वर्ष-1995 में एम.ए. (इतिहास) करने के बाद सामाजिक सेवा की राह उन्होने अपनाई. जीवकोपार्जन के लिए नौकरी या व्यवसाय करने की उनको सूझी ही नहीं. अपने गृहक्षेत्र में 18 मार्च, 1996 को ‘चेतना आंदोलन’ की शुरुवात उन्होने भ्रष्टाचार के खिलाफ भिलंगना ब्लाक आफिस पर तालाबंदी करके की थी. उसके बाद ‘जल-जंगल-जमीन हमारी, नहीं सहेंगे धौंस तुम्हारी’ की तर्ज पर आन्दोलन दर आन्दोलन में वे अग्रणी भूमिका में सक्रिय रहने लग गये।

उत्तराखंड आन्दोलन, शराबबंदी आन्दोलन, टिहरी बांध से प्रभावित फलेण्डा गांव आन्दोलन, भ्रष्टाचार के खिलाफ सूचना के अधिकार का आन्दोलन, नैनीसार आन्दोलन आदि के जरिए वे देश भर में चलाये जा रहे कई आन्दोलनों से जुड़ गए. वे राष्ट्रीय जनतांत्रिक समन्वय और उत्तराखंड नव निर्माण मजदूर संघ के संस्थापक सदस्य हैं. सामाजिक जागरूकता और अन्याय के विरुद्ध सक्रिय होने के कारण समय-समय पर शासन-प्रशासन के कोपभाजन की यंत्रणा को भी उन्होने सहा. नतीजन, जेल और मुकदमों से उनका नजदीकी नाता रहा।

एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में त्रेपन सिंह चौहान ने श्रम के सम्मान के लिए अनेक जागरूकता कार्यक्रमों का आयोजन किया. ‘घसियारी हो या मजदूर, श्रम का सम्मान हो भरपूर’ नारे के तहत ‘घसियारी प्रतियोगिता’ का आयोजन करना उनका एक अभिनव प्रयोग रहे. यह बहुप्रचारित किया जाता है कि पहाड़ के ग्रामीण अर्थतंत्र की रीड महिलायें हैं. गांव की किसानी में पुरुषों और पशुओं के सम्मलित योगदान से कहीं ज्यादा महिलाओं का व्यक्तिगत योगदान है. फिर भी उनके योगदान को उत्पादक और सम्मानयुक्त मानने में सारा समाज हिचक जाता है. उदाहरणार्थ ‘घास छीलना’ और ‘घास काटना’ शब्दों का प्रयोग अक्सर बेकारी के संदर्भ में किया जाता है. पर यही घास काटना ग्रामीण महिलाओं के लिए अपनी दिनचर्या का सबसे अहम काम है. घास काटते हुए पहाड़ की घसियारिन मातायें और बहिनें पहाड़ के पूरे पारिस्थिकीय तंत्र को बचाये रखती हैं. इस नाते वे ‘बेस्ट इकोलाॅजिस्ट’ की भूमिका में हैं. त्रेपन का मानना है कि पहाड़ी गांवों में पली-बढ़ी हमारी पीढ़ी जो बाद में नगरों में जा बसी है, इन्हीं घसियारिनों याने ‘बेस्ट इकोलाॅजिस्ट’ की संताने हैं. हमारी ‘बेस्ट इकोलाॅजिस्ट’ माताओं ने पहाड़ के गांवों की सामुहिक दायित्वशीलता वाली संस्कृति को जीवंत रखा है. गांवों में ‘घसियारिनों के गीतों’ की लोकप्रियता इसी कारण सर्वाधिक है.
त्रेपन ने माना कि जब गांव की महिलायें ‘बेस्ट इकोलाजिस्ट’ हैं, तो फिर उनके काम के प्रति इतना अनादर क्यों हैं ? इसी बिडम्बना को समाप्त करने के लिए उन्होने वृहद स्तर पर ‘घसियारी प्रतियोगिता’ का आयोजन प्रारम्भ किया है. जिसका ध्येय विचार है ‘पहाड़ की ग्रामीण अर्थव्यवस्था में घसियारिनों के श्रम को सम्मान एवं उसे और उत्पादक बनाना.’ इसके तहत दिसम्बर, 2015 में भिलंगना ब्लाक, टिहरी गढ़वाल की 112 ग्राम पंचायतों की 600 से अधिक महिलाओं ने ‘घसियारी प्रतियोगिता’ में भाग लिया. इस प्रतियोगिता का समापन 6 जनवरी 2016 को चमियाला के कोठियाड़ा गांव में हुआ. इसी प्रकार दूसरी ‘घसियारी प्रतियोगिता’ 22 दिसम्बर, 2016 को अखोड़ी गांव सम्पन्न हुई. यह प्रतियोगिता ग्राम पंचायत, न्याय पंचायत के बाद ब्लाक स्तर पर सम्पन्न होती है. प्रतियोगिता के अन्तर्गत 2 मिनट में सबसे ज्यादा घास काटनी होती है और इसमें यह घ्यान रखा जाता है कि घास के साथ अन्य उपयोगी पौधें न कटे. प्रथम विजेता को 1 लाख, द्वितीय को 51 हजार और तृतीय को 21 हजार रुपये का पुरस्कार दिया जाता है।

इसमें सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि आयोजन के लिए संपूर्ण व्यय राशि को स्थानीय जनता स्वयं ही जुटाती है. भिलंगना ब्लाक में सफलता के बाद यह ‘घसियारी प्रतियोगिता’ कुमाऊं मंडल के गरुड क्षेत्र में भी आयोजित की जाने लगी.साहित्य उपक्रम से प्रकाशित उनके उपन्यास ‘युमना’ (वर्ष-2007 एवं 2010) और उसके दूसरे भाग ‘हे ब्वारी !’ (वर्ष-2014) ने उन्हें हिन्दी साहित्य में शानदार प्रतिष्ठा प्रदान की है. उत्तराखण्ड आन्दोलन के दौरान पहाड़ी गांव का सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक और आर्थिक परिवेश कैसे करवट बदल रहा था, इसी कथानक पर ‘यमुना’ और उसका दूसरा भाग ‘हे ब्वारी !’ उपन्यास ने आकार लिया है. ये उपन्यास उत्तराखण्ड के ग्रामीण जनजीवन की जीवन्तता, जीवन शैली की सहजता, अभावों में जीते हुए परन्तु भविष्य के प्रति हमेशा आशावान समाज की मनःस्थिति को दर्शाते हैं. शहर और कस्बों से आयी तथाकथित विकास की बातों ने पहाड़ी ग्रामीण जीवन में कैसे दस्तक दी, उपन्यास का कथानक इससे प्रारम्भ होता है. सीधे-सरल और आत्मनिर्भर जीवन के आदी ग्रामीण इन आहटों से अचंभित होते है. वे अपने जीवन के सवालों का समाधान शहरी जीवन में खोजना शुरू कर देते हैं. लेकिन शहरी जनजीवन के मोह में उन्हें मालूम नहीं चल पाता कि तथाकथित विकास की यह प्रवृत्ति अपने साथ कई सामाजिक विकृतियों को भी साथ ला रही है.पिछले कुछ सालों से ‘मोटर न्यूराॅन’ बीमारी से त्रेपन चौहान उभर ही रहे थे कि 25 मार्च, 2018 को चमियाला में अपने घर पर गिरने से सिर की चोट ने उन्हें फिर से बीमार कर दिया. अस्पतालों की यात्रा फिर शुरू हो गई. यह तसल्ली देने वाली बात है कि महंगा इलाज और विदेश से दवाई मंगाने की मजबूरी के बावजूद भी देश-विदेश में अपने मित्रों-शुभचिन्तकों की मदद से त्रेपन के जीवन की जीवटता और जीवंतता कम नहीं हुई. त्रेपन भाई को इस विकट समय में आत्मीय मदद देने वाले उन मित्रों को सलाम और धन्यवाद. इसी बीमारी के चलते 13 अगस्त, 2020 को उनका देहांत हो गया. परन्तु मरते दम तक उनकी सामाजिक सक्रियता शिथिल नहीं हुई. समसामयिक मुद्दों पर सोशल मीडिया पर वह सक्रिय रहे. अपने नया उपन्यास ‘ललावेद’ (थोपी हुई समस्या-उत्तराखंड के राजनैतिक-सामाजिक परिपेक्ष्य में) जो कि ‘यमुना’ और ‘हे ब्वारी !’ का अगला भाग को कम्प्यूटर में टाइप करने वह व्यस्त रहते. उसकी जाबांजी देखिए कि हाथों ने टाइप करने में असमर्थता जाहिर की तो वो बोल के टाइप करने लगा और जब आवाज ने भी साथ देना छोड़ दिया तो आंखों की पलकों के इशारे से अब कम्प्यूटर पर टाइप करने लगा।

यह उसकी जीने की दृड-इच्छाशक्ति का ही कमाल था. परन्तु सबसे ज्यादा साधुवाद की पात्र उनकी धर्मपत्नी नीमा जी एवं बच्चे अक्षर और परिधि हैं जो उसकी सेवा में दिन-रात तत्पर रहे.
हावर्ड फास्ट के नायक ‘स्पार्टकस’ की तरह ही ‘उत्तराखंड का स्पार्टकस’ त्रेपन सिंह चौहान के चेतना आंदोलन ने उसकी जीवनीय चेतना को कभी कमजोर नहीं होने दिया. मृत्यु के पल तक जीवन के कठिन समय में अपनी पलकों में अनगिनत खुशहाली के सपने लिए वह अपने लेखन के प्रति समर्पित योद्धा का भाव लिए हुए दद्चित रहे।

पहाड़ के स्टीफन हॉकिंग कहे जाने वाले स्वर्गीय श्री त्रेपन सिंह चौहान जी को शत-शत नमन