लुप्त होने की कगार पर पनचक्की या घराट, परंपरागत वैज्ञानिकता का उत्कृष्ट नमूना: शैलेंद्र सिंह नेगी PCS

उत्तराखंड जन समस्या टिहरी गढ़वाल

घनसाली:- आपने अक्सर पहाड़ी क्षेत्रों में बहती हुई नदियों व गाड गदेरों में पनचक्की या घराट देखे होंगे। यह पनचक्की या घराट पहाड़ी समाज की मूलभूत आवश्यकताओ की पूर्ति का एक माध्यम होती थी। साथ ही यह उस दौर में प्राकृतिक संसाधनों एवं वैज्ञानिक सोच का एक शानदार मिश्रण एवं प्रयोग होते थे।

पनचक्की या घराट को यदि आपने गौर से देखा हो तो एक डेढ मंजिल का मकान होता है जिसमें भूतल वाला भाग कम ऊंचाई का जबकि प्रथम तल लगभग पूर्ण ऊंचाई का होता है। पहाड़ी क्षेत्र से बहती नदियां या गाड, गधेरो से नहर निकालकर पानी को तीव्र ढाल के साथ गुजारा जाता है। पानी लकड़ी के बने हुए चार या पांच या छह कीलो से , जो गोल आकृति के एक मोटे डंडे से जुड़ी होती है, से टकराती है। जिस कारण वह घूमने लगता है। प्रथम तल के फर्श में एक गोल आकृति का चक्का फर्श के साथ फिक्स होता है जबकि उसी आकार का एक चक्का ऊपर की तरफ भूतल से लगे हुए डंडे से जुड़ा तथा नीचे वाले चक्का के ऊपर रखा होता है जिस कारण ऊपरी चक्का घूमता है। ऊपर वाले चक्का में छेद होते हैं जिनमें अनाज को डाला जाता है और अनाज के दाने नीचे वाले चक्का के बीच फंस जाते हैं तथा पीसकर आटा निकलता है।

उल्लेखनीय है कि यह एक व्यवहारिक परंपरा रही है। जिस भी व्यक्ति के स्वामित्व में यह घराट या पनचक्की होते है वह पिसाई के बदले पैसा नहीं लेता है बल्कि इच्छा अनुसार आटा लेता है। यह भी एक स्वस्थ सामाजिक परंपरा है कि यदि वहां पर घराट मालिक उपस्थित न हो तो कोई भी व्यक्ति स्वयं जाकर अपना अनाज पीस सकते है और मौके पर रखें बर्तन में पिसाई के बदले आटा स्वयं रख लेते है। इस प्रकार एक सामाजिक व्यवस्था के साथ ही सभी की व्यक्तिगत आजीविका पूर्ति होती है। इसमें विज्ञान और प्रकृति भी समाहित होते है। गरीब एवं कमजोर वर्ग के लिए अपनी दैनिक आवश्यकता की पूर्ति के लिए अनाज पीसने के लिए इससे बेहतर चक्की नहीं हो सकती है।

एक जमाना था कि पनचक्की या घराट जिस भी व्यक्ति के कब्जे या संचालन में होती थी उसका उस गांव व क्षेत्र में दबदबा होता था। लोग अपनी आजीविका के लिए उत्पादित गेहूं, मंडवा आदि को पीसने के लिए लाया करते थे और इसके बदले आटा देते थे जिसे वह व्यक्ति स्वयं के उपयोग में लाता था या जरूरतमंदों को बेच देता था।

वक्त बदला और पहाड़ों में विकास होने लगा। जिस कारण पहाड़ के हर गांव तक सड़क पहुंच गई। सड़क पहुंचने के साथ ही दैनिक जरूरत की पूर्ति के लिए दुकान एवं आटा चक्की भी गांव-गांव में खुलने लगे। गांव गांव में आटा चक्की खुलने के कारण परंपरागत रूप से आटा पिसाई के यह केंद्र पनचक्की या घराट गांव से या तो दूर एवं अलग-थलग पड़ गए या फिर नदी के किनारे गहराई में पड़ गए जो नई पीढ़ी के लिए दुर्गम हो गए। इसी का परिणाम हुआ कि इनकी उपेक्षा होने लगी। जिन भी व्यक्तियों के पास इनका स्वामित्व था, वह स्वयं को उपेक्षित महसूस करने लगे। बुजुर्ग होने के कारण उनका इन पनचक्की या घराट से लगाव था। इसलिए आज जितने भी पनचक्की या घराट चालू स्थिति में है उसमें काम करने वाले अधिकांश बुजुर्ग व्यक्ति हैं जो इस पीढ़ी और परंपरा के अंतिम संवाहक माने जा सकते हैं। नई पीढ़ी का इस तरफ बिल्कुल भी रुझान नहीं है।

विडंबना है कि लुप्त हो रहे इन पनचक्की या घराट की अभी सुध लेनी बाकी है। यदि ग्राम स्तर पर इन पनचक्की या घराट को पुनर्जीवित करने या संरक्षित करने का प्रयास किया जाए तो परंपरागत वैज्ञानिक प्रयोग की यह चक्की नई पीढ़ी के लिए रोजगार का बेहतरीन साधन बन सकती है। साथ ही पर्यटन का भी एक माध्यम बन सकती है।

युवाओं को चाहिए कि वह अपने गांव के निकट बहती हुई नदियों में इस प्रकार के घराट संचालित करें। गेहूं या मंडवा आदि को घराट में पीसकर स्थानीय लोगों को उपलब्ध करने के साथ ही पैकेट बनाकर इसका मार्केटिंग भी करें।

घराट को पुनर्जीवित करने के लिए 100% सब्सिडी सहित विशेष योजना संचालित की जानी चाहिए। साथ ही गेहूं ,मंडवा तथा अन्य अनाज भी इन घराट संचालित करने वाले युवकों को सस्ते दर पर उपलब्ध कराने के लिए विचार करना चाहिए। इससे जहां एक और पहाड़ी क्षेत्र से पलायन रुकेगा। वही आटा चक्की से खर्च हो रही बिजली एवं डीजल की बचत भी होगी। बिना मशीनों का पिसा हुआ आटा स्वास्थ्य के लिए उपयोगी भी है जिससे रोगों में भी कमी आएगी।

घराट एवं पनचक्की न केवल आटा पीसने के काम आ सकती हैं बल्कि इससे बिजली भी पैदा की जा सकती है।

आवश्यकता है कि इस दिशा में प्रयास किए जाए।

शैलेंद्र सिंह नेगी PCS
उप जिलाधिकारी
घनसाली एवं प्रताप नगर
जनपद- टिहरी गढ़वाल